वक़्त की गुत्थी

वक़्त की गुत्थियां सुलझा रहा हैं या मानो खुद ही उलझता जा रहा हैं,

किनारे की तलाश में गहरे समंदर में उतरता जा रहा हैं।

डूबने का तो डर नहीं पर फिर भी ना जाने आगे बढ़ने से क्यों कतरा रहा हैं

इस बंज़र धरा पर कही छांव मिलने की आस लगा रहा हैं,

वास्तविकता के परे शायद अब उम्मीद का आँचल थामे जा रहा हैं।

बेमतलब है इस सूखे आसमां से बरखा की उम्मीद लगाना,

ये तो फितरत है इंसां की जो हर मोड़ पर ढूंढे है सहारा,

वरना दम तो उस में है जो अकेला ही हर जंग लड़ता जा रहा है।

शब्दो के सहारे कब किसे मंज़िले मिलती हैं,

फिर भी सपनो की दुनिया में आज वो अपना गुज़रा कल जीता जा रहा है।

ब्रह्मांड की खोज में निकला वो घर अपना छोड़ कर,

पर शुन्य में गुम हो कर रह गया अपना असली वज़ूद वो भूल कर।

विषमताओं से लड़ते लड़ते अब वो थकता जा रहा है,

यूँही उस की आँखों से दूर उस का मंज़र होता जा रहा है।

खुद से ही उलझना ही रहा मुकदर उस का,

वही कश्ती भी था और उसी में रहा किया समंदर उस का।

किस से पूछे वो कि कहाँ बरसो से गुम है,

हर जगह ढूंढता फिर रहा उसे घर उस का।

सुनहरा ख्वाब देखे मुद्दते उसे हो गईं हैं,

जागता रहता है हर नींद में भी बिस्तर उस का।

वक़्त की गुत्थियां सुलझा रहा हैं या मानो खुद ही उलझता जा रहा हैं।।

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