सफर

सफर में बसर हो रही है ज़िन्दगी,कहा वक़्त है कि दो पल चैन से कोई सांस भी ले सके।

काश न गया होता वो बचपन हमारा, इस नरम सी कुर्सी से तो वो धुप ही अच्छी थी।

दौलत की दौड़ से अच्छा था वो सडको पे नंगे पैर दौड़ना,

अंधियारे की रोशनी से लाख अच्छा था वो हमारा जुगनू पकड़ना।

मुस्कराती सुबह हुआ करती थी शामे भी रोज़ चहका करती,

कंचे, लट्टू, गिल्ली डंडा बस इतनी ही ख्वाहिशे हुआ करती थी।

वक़्त की कोई पाबंदी ना थी, ना कोई बोझ हुआ करता था,

हंसी ठिठोली करते करते सारा समय बीता करता था।

किस्से कहानियों में तब ज़िन्दगी रहा करती थी,

सपनो की दुनिया भी तब हमको सच्ची सी लगा करती थी।

मौसमो के मज़े सारे तब सब खुल के लिया करते थे,

ये कागजो की ज़िन्दगी से तो वो रोज़ की जंग अच्छी हुआ करती थी।

वो बूढा दरख्त जो हुआ करता था लू में हमारा आशना,

आज ढूंढता है बड़ी आस से वो गया ज़माना।

ये बंद शीशे के कमरे की ठंडी हवा वो सुकून ना दे पाती है,

जो समन्दर की हवा चंद पलो में दे जाती है।

बाँध के खुद को खुदा से दूर हमने यूँ कर लिया,

वो चाँदनी में तारे गिनती रातो का मज़ा ऐ खुदाया कुछ और ही था।

यूँही सफर में बसर हो रही है ज़िन्दगी,कहा वक़्त है कि दो पल चैन से कोई सांस भी ले सके।

काश न गया होता वो बचपन हमारा, इस नरम सी कुर्सी से तो वो धुप ही अच्छी थी।

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